शिकवा - Deepak Salwan
शिकवा
बहुत शिकवा है मुझे तेरे एक बाल से,
जो तेरे कानों के पीछे से हो के तेरे गालों को चूमता है,
बहुत शिकवा है मुझे तेरे उस झुमके से,
जो मदहोश हो के तेरे कानों में लटका झूमता है,
बहुत शिकवा है मुझे तेरे काजल से,
मेरी तो कोई जगह नहीं पर तेरी आँखों में वह जो रहता है,
बहुत शिकवा है मुझे तेरे कंगन से,
कलाई तो मैंने ही पकड़ी हुई है ना, मुझसे हमेशा कहता है,
बहुत शिकवा है मुझे तेरे गले के हार से,
तेरे सीने से लगा हुए मुझे कहता है के तुझे तेरे खाली बाजूओं का एहसास तो है ना,
बहुत शिकवा है तेरी उस एक पाजेब से,
तेरे पाऊँ में पड़ी हुई है पर तेरे पास तो है ना,
बहुत शिकवा है मुझे हर उस शै से ,
जो तेरे नज़दीक हो के मुझे मेरी दूरियों का एहसास दिलाती है,
बहुत शिकवा है मुझे तो उस हवा से भी,
जो तेरे खुली हुई ज़ुल्फ़ों को छु के महक सी जाती है,
हाँ, बहुत शिकवा है मुझे।
Wow....what a beautiful imagination of the poet and equally beautiful is the selection of words.
ReplyDeleteExtremely well expressed
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