ए अहले वतन - Deepak Salwan
ए अहले वतन
ए अहले वतन मुबारक हो तुझे आज़ादी की यह शाम,
कितनो ने चूमा फांसी को ले के बस एक इंक़लाब का नाम,
तेरी ज़ंजीरें तोड़ने के लिए कितने बाजू कट गए,
तुझे पहचान देने के लिए कितने नाम वक़्त से मिट गए,
तुझे रोशन करने के लिए कितने घरों के चिराग बुझे,
काट गए सर कितने और कितनो ने पिलाया अपना लहू तुझे,
उम्मीद थी उनको के शब् यह गुलामी की कटेगी और सहर का आफ़ताब आज़ाद होगा
फक्र से सर ऊँचा रहेगा हमेशा और हर घर ख़ुशी से आबाद होगा,
न जात पात के दायरे होंगे, ना हिन्दू ना कोई मुसलमान होगा,
वतन और इंसानियत के रंग में रंगा वतन का हर इंसान होगा,
उम्मीद थी उनको के वतन को हमेशा चराग-ए-आजादी रोशन करेगा,
आने वाली नस्ल याद रखेगी हमें, किसी आँख से तो हमारे लिए एक आंसू बहेगा,
आज वक़्त की गर्द में खो गए हैं वतन के आशिकों के नाम,
ना किसी आँख से आंसू बहता हैं और ना ही कोई हाथ करता है सलाम,
ना कोई रोशन करता है बुझे चरागों को, ना ही कोई देखता है गुजरे वक़्त में,
ना कोई करता है दुआ तेरी खैर के लिए, ना कोई सर झुकता है तेरी अज़मत में,
आज़ादी का सिर्फ नाम रह गया है और पुराने हो गए हैं सब किस्से तमाम,
ए अहले वतन मुबारक हो तुझे आज़ादी की यह शाम,
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